इस्त्री करने वाला ठीक मेरे घर के पास एक पेढ़ के नीचे इस्त्री करता था . रेडियो पर अक्सर ८० के दशक के गाना सुनता था.
शीशा हो या दिल हो आखिर टूट टूट जाता है ...." पेढ़ के नीचे कपडे प्रेस करने के कारण पेढ़ से गिरि पत्तिया मेरे पैंट से चिपक जाती थी.
उसकी पत्नी भी बड़ी मरियल सी थी और देख कर लगता नहीं था कि ७ किलो का भारी भरकम कोयले का प्रेस उठा भी सकती है. ज्यादा देर उसे देखू तो
डर लगता था कि कही प्रेस मेरे गाल से ना चिपका दे
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